पक्ष-विपक्ष:-चुनाव परिणामों को ठीक से जानना होगा

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पक्ष-विपक्ष:-चुनाव परिणामों को ठीक से जानना होगा
पक्ष-विपक्ष:-चुनाव परिणामों को ठीक से जानना होगा


मुकुल सरल

जब मोदी गारंटी को भाजपा की एकतरफ़ा जीत का कारण बताया जा रहा है तो फिर गहलोत गारंटी या बघेल गारंटी में क्या कमी थी। या फिर तेलंगाना में कैसे कांग्रेस की गारंटियां काम आ गईं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना के चुनाव परिणाम आ चुके हैं और इसी के साथ राजनीतिक दलों, नेताओं, विश्लेषकों और पत्रकारों द्वारा हार-जीत के जो कारण दिए जा रहे हैं, तर्क गढ़े जा रहे हैं उन्हें लेकर कुछ सवाल उठते हैं क्योंकि चुनाव के नतीजे आने से पहले तक यह काफ़ी उलट थे या एक तर्क जो मज़बूती से एक राज्य, एक पार्टी या एक सीट के लिए दिया जा रहा है वो उसी की बगल की सीट या पड़ोसी राज्य में काम नहीं करता। इसे मानने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि बड़े-बड़े दिग्गज इस चुनाव परिणाम को पढ़ने में नाकाम रहे और इसमें केवल स्वतंत्र विश्लेषक या पत्रकार ही शामिल नहीं बल्कि कॉरपोरेट मीडिया और उसका कथित एग्ज़िट पोल साइंस भी शामिल है। अगर इन चार राज्यों में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस के ख़िलाफ़ या भाजपा के पक्ष में इतनी बड़ी वेव थी, लहर थी तो भी वो ग्राउंड पर घूमने वाले पत्रकारों और गांव-गांव तक पकड़ रखने वाले स्थानीय मीडिया तक को क्यों नहीं पकड़ में आई और अब जब परिणाम सामने आ गए हैं तो सबके तर्क बदल गए हैं। पक्ष-विपक्ष:-चुनाव परिणामों को ठीक से जानना होगा

यह सच है कि चुनाव पूर्व आमतौर पर जो दावे और पड़ताल की जा रही थी वो इसके उलट थी। या अगर परिणाम बदलता तो जो आज हार का कारण बताया जा रहा है वो कल जीत का कारण बताया जाता। या जो जीत का कारण बताया जा रहा है वही हार के कारण में बदल जाता। इसलिए केवल मनोरंजन या टाइम पास के लिए नहीं बल्कि इन चुनाव परिणाम को ठीक से पढ़ना ज़रूरी है क्योंकि यह देश के लोकतंत्र का सवाल है। और गंभीर सवाल है। समझना होगा कि जिसे जनादेश बताया जा रहा है वो वाकई जनता का आदेश है और अगर है तो कैसे और क्यों और उससे आगे की राजनीति और देश के लोकतंत्र के लिए क्या संदेश या दिशा मिलती है। क्योंकि 2024 का आम चुनाव सामने है।

हालांकि जो जीता वो सिकंदर, लेकिन अब भी कुछ सवाल हैं जिनके जवाब नहीं मिल रहे।

जनहित की योजनाएं, उनकी ज़मीन तक डिलीवरी और आगे के वादे यानी घोषणापत्र की बात की जाए तो इनमें से किसी भी मामले में कांग्रेस,भाजपा से कमतर नहीं थी। बल्कि कई मामलों में आगे थी। छत्तीसगढ़ में तो भाजपा को बघेल सरकार के ख़िलाफ़ मुद्दा तक नहीं मिल पा रहा था। अंत समय में एक महादेव बेटिंग ऐप घोटाले का मुद्दा ज़रूर मिला, लेकिन इसका कुछ असर था ऐसा ऐन चुनाव तक नहीं लगता था। अगर इसका असर था तो मध्यप्रदेश में तो व्यापमं से लेकर नर्सिंग घोटाले तक सामने आए। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा। वीडियो वायरल हुआ लेकिन यह चुनाव में मुद्दा तक नहीं बना। अब इसे मुद्दा न बना पाने के लिए कांग्रेस को नाकाम कहा जा सकता है लेकिन वहीं तेलंगाना में KCR के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मुद्दे ने काम किया और यह कांग्रेस के पक्ष में गया ऐसा ज़रूर कहा जा सकता है।

मध्यप्रदेश में लाडली बहना योजना को गेम चेंजर बताया जा रहा है लेकिन राजस्थान में गहलोत सरकार की भी योजनाएं कम नहीं थीं। लेकिन यहां न चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना ने काम किया न शहरी रोज़गार गारंटी योजना ने। न महिलाओं को फ्री मोबाइल देने ने। न OPS ने, न जाति जनगणना के दांव ने इसी तरह छत्तीसगढ़ में क़र्ज़ माफ़ी, धान की ऊंचे दाम पर ख़रीद और गोबर तक ख़रीदने की योजना ने। इसी तर्ज पर तेलंगाना में KCR की योजनाएं भी कम नहीं थीं, लेकिन वहां कांग्रेस ने जीत दर्ज की।

पार्टी या नेताओं की अंदरूनी लड़ाई का मुद्दा: अगर राजस्थान में कांग्रेस की हार का ठीकरा गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई के सर फोड़ा जाए या मध्यप्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच की खींचतान या एक को साइड लाइन करने या एक के ठीक से काम न करने को ज़िम्मेदार ठहराया जाए तो छत्तीसगढ़ में तो अंदरुनी लड़ाई का कोई असर नहीं दिख रहा था। जो थोड़े बहुत असंतुष्ट नेता उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव दिख रहे थे वे ख़ुद अपनी सीट हार गए। यानी उनका कितना असर था, यह समझा जा सकता है।

और मध्यप्रदेश में शिवराज ने भी बाग़ी तेवर अपनाने में कोई कमी नहीं की। यही वजह थी कि शुरुआत में उन्हें किनारे करने के बाद उन्हें सामने लाया गया। उम्मीदवारों की चौथी लिस्ट में उनका नाम घोषित किया गया। फिर भी उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया गया। पूरा चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया और केंद्र से कई सांसद और मंत्री मध्यप्रदेश पर थोप दिए गए। इसी तरह KCR की पार्टी BRS में तो कोई बग़ावत नहीं थी। फिर भी उनकी पार्टी हार गई। दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले KCR भी कामारेड्डी की सीट हार गए। और कामारेड्डी की सीट तो वे कांग्रेस से नहीं भाजपा से हारे, जबकि कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ अपने सबसे बड़े नेता जो मुख्यमंत्री का चेहरा हैं रेवंत रेड्डी को उतारा था।

पक्ष-विपक्ष:-चुनाव परिणामों को ठीक से जानना होगा

राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोकतंत्र को विपक्षहीन बनाने की ओर आराम से बढ़ा जा सकता है। कांग्रेस की गड़बड़ियों पर निश्चित तौर पर चर्चा होनी ही चाहिए, लेकिन साथ ही जीत के अदृश्य तंत्र पर भी। विपक्षहीन लोकतंत्र एक भयावह कल्पना है और अगर उस दिशा में देश बढ़ रहा है, तो इसकी वजहों की तलाश-शिनाख़्त बेहद ज़रूरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन राज्यों में जीत के बाद संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत में जो भाषण दिया, उसमें यही कहा कि विपक्ष हारा क्योंकि उसने नकारात्मक प्रचार किया। जबकि हकीकत यह है कि इन तीन हिंदी-भाषी राज्यों में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा का प्रचार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (कन्हैयालाल की हत्या), राहुल गांधी पर अमर्यादित टिप्पणी (महामूर्खों का सरदार, फांसी दो) आदि पर केंद्रित था। अगर इसमें असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वसरमा या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भाषणों को जोड़ दिया जाए— तो पता चलता है कि किस कदर सांप्रदायिक विद्वेष की बातें की गई और हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का दांव चला गया। लेकिन इन सबका हिसाब रखेगा कौन? देश के संविधान के मुताबिक इन सारी टिप्पणियों पर चुनाव आयोग को कार्रवाई करनी चाहिए, मतदाताओं के बीच सांप्रदायिक वैमन्सय फैलाना अपराध है, लेकिन अपना चुनाव आयोग तो ख़ास है, ख़ास पर मेहरबान है। उसे पनौती शब्द से मुश्किल होती है, लेकिन इन सबसे नहीं।

आज तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा न देने और पूरा चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़े जाने को जीत का श्रेय दिया जा रहा है लेकिन अगर हार होती तो यही तर्क दिया जाता कि लोकल लीडरशिप को पीछे करने की वजह से हार हुई। और उनकी नाराज़गी भाजपा को ले डूबी। कई बार ऐसा हो चुका है। रिवाज की बात कही जाए तो यह राजस्थान के संदर्भ में तो ठीक है लेकिन छत्तीसगढ़ में तो ऐसा कोई रिवाज नहीं था कि हर पांच साल पर सरकार बदली जाए। एक सरकार से ऊब या बोर होने की बात होती तो मध्यप्रदेश में लगभग 18 साल से शिवराज सिंह का ही शासन है। छत्तीसगढ़ में भी 2018 से पहले पिछले लगभग पंद्रह साल रमन सिंह यानी भाजपा का शासन रहा। यानी सरकार से बोर होने और बदलने की तीव्र इच्छा का भी तर्क यहां काम नहीं करता।

इसी तरह एंटी इनकंबेंसी यानी सत्ता विरोधी लहर की भी बात भी बेमानी है। क्योंकि एंटी इनकंबेंसी मध्य प्रदेश में नहीं चलती जहां 18 साल से शिवराज ‘मामा’ का शासन था लेकिन जहां केवल पांच साल से भूपेश बघेल का शासन था यानी मध्यप्रदेश से ही अलग होकर बने छत्तीसगढ़ में यह तर्क कैसे दिया जा सकता है। जबकि यही तर्क तेलंगाना के पक्ष में दिया जा सकता है कि वहां केसीआर के शासन के ख़िलाफ एंटी इनकंबेंसी थी क्योंकि वे भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा 2014 यानी जबसे तेलंगाना बना है तब से वहां राज कर रहे थे।

सांप्रदायिकता के कार्ड की बात की जाए तो मध्य प्रदेश में इस बार सांप्रदायिकता का खेल नहीं चला या पूरे ज़ोर शोर से नहीं चलाया गया। हालांकि स्थानीय स्तर पर भाजपा नेताओं ने इसका प्रयोग किया लेकिन राज्य स्तर पर भाजपा ने अपनी फायर ब्रांड नेता प्रज्ञा ठाकुर तक को इस चुनाव में इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन इसी के साथ फिर कैसे राजस्थान में यह कार्ड चला और महंत बालकनाथ को आगे किया गया।लेकिन फिर सवाल कि छत्तीसगढ़ में इस कार्ड के बिना भाजपा ने इतनी बड़ी जीत कैसे हासिल की। कुछ लोग बता रहे हैं कि इस बार वहां जाति का सवाल बना लेकिन इस आदिवासी बहुल इलाके में क्या यूपी-बिहार की तरह जाति काम करती है। मुझे नहीं मालूम।

सांप्रदायिकता के मामले में हालांकि भाजपा चैंपियन है लेकिन बघेल और कमलनाथ ने भी गुपचुप रूप से यह कार्ड खेलने में कोई कमी नहीं छोड़ी। चुनाव से पहले कहा गया कि कांग्रेस ने भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति को रामपथ गमन मार्ग, छत्तीसगढ़ियावाद, गोठान के माध्यम से काउंटर किया है। इसी तरह कमलनाथ ने भी कोशिशें कीं। वे तो बाबा कहे जाने वाले धीरेंद्र शास्त्री के पास तक शीश नवाने गए। अब अगर यह नुस्खा कामयाब हो जाता तो यही कहा जाता कि इन नेताओं ने भाजपा के सांप्रदायकिता के कार्ड की काट बड़ी खूबसूरती या चालाकी से कर दी, लेकिन अब कहा जाएगा कि वे इस पिच पर भाजपा से नहीं जीत सकते। हालांकि यह सच भी है और कांग्रेस को इस पर सोचना होगा कि हिंदुत्व की पिच पर वो भाजपा से कभी नहीं जीत सकते।

प्रशासनिक गड़बड़ी का आरोप। मध्यप्रदेश में कोई प्रशासनिक गड़बड़ी का आरोप लगा सकता है लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो यह आरोप काम नहीं करता, क्योंकि दोनों जगह सरकार कांग्रेस की थी। या अगर कांग्रेस इतनी ही असहाय थी तो कर्नाटक के बाद लगातार तेलंगाना का चुनाव न जीतती। क्योंकि कर्नाटक में उसने भाजपा और तेलंगाना में बीआरएस से सत्ता छीनी है। हालांकि दक्षिण और उत्तर भारत की राजनीति पर अलग से बात हो सकती है।

अब सवाल कॉरपोरेट मीडिया और ग्राउंड पर गए युवा से लेकर वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकारों से पहला सवाल तो इसमें एग्ज़िट पोल को लेकर है कि अगर यह वाकई साइंस है यानी वैज्ञानिक तरीके से तथ्य जुटाए और उनका विश्लेषण किया जाता है तो फिर मध्यप्रदेश में 2 को छोड़कर (जिनपर कल से पहले सबसे ज़्यादा सवाल उठ रहे थे) बाक़ी एग्ज़िट पोल कैसे फेल हो गए और इन दो ‘सफल’ एग्ज़िट पोल समेत सभी 10-12 पोल छत्तीसगढ़ में कैसे फेल हो गए क्योंकि सभी वहां भूपेश बघेल यानी कांग्रेस की सरकार वापस बनवा रहे थे। यह पोल तेलंगाना के मामले में सफल रहे लेकिन राजस्थान में नहीं। क्योंकि राजस्थान में भी कमोबेश कांटे का मुकाबला ही दिखाया जा रहा था।

इसी में सवाल है कि जो दो एग्ज़िट पोल मध्यप्रदेश में इतने सफल और सटीक रहे हैं पूरे 100 प्रतिशत, वे छत्तीसगढ़ में इतनी बुरी तरह विफल कैसे हो गए। यानी उन्होंने 230 सीट वाले मध्यप्रदेश के मतदाता का मन तो पूरी तरह पढ़ लिया लेकिन 90 सीट वाले छोटे राज्य छत्तीसगढ़ के मतदाता का मन नहीं पढ़ पाए। इसी तरह स्वतंत्र पत्रकार, स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक तक जनता का मन या मतदाताओं का मूड समझने में इस क़दर नाकाम कैसे रहे। जैसे पहले कहा कि मध्यप्रदेश के मामले में केवल दो एग्ज़िट पोल ही सही हुए, बाकी तो फेल ही हुए। इसी तरह स्वतंत्र पत्रकार, लोकल मीडिया, स्थानीय एक्टिविस्ट तक को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इतनी बड़ी वेव पकड़ में नहीं आई। दोनों जगह भाजपा उनकी उम्मीदों से और मध्यप्रदेश में तो अपनी ख़ुद की उम्मीदों से भी कहीं ज़्यादा सीट ले गई। स्वतंत्र मीडिया में तो मध्यप्रदेश में भी भाजपा हार रही थी और छत्तीसगढ़ में तो गोदी मीडिया से लेकर स्वतंत्र पत्रकार भी एक राय से कांग्रेस की जीत बता रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

बहुत सवाल हैं। कई किंतु-परंतु। इसलिए इस चुनाव को ठीक से डिकोड करना ज़रूरी है। क्योंकि 2024 के आम चुनाव सामने हैं।

आख़िरी बात एक और अगर डबल इंजन की ही बात है। या जनता के सांप्रदायिककरण और उसकी समझ की बात है तो अभी इसी 2023 में यूपी में घोसी उपचुनाव में कैसे जनता ने मोदी मॉडल और योगी मॉडल जिसका कथित तौर पर पूरे देश में डंका पिट रहा है को धता बताकर समाजवादी पार्टी को जिता दिया। जबकि आमतौर पर समझा जाता है कि उपचुनाव सरकार के पक्ष में जाता है। हालांकि इसमें कई लोकल और जातीय फैक्टर थे लेकिन फिर भी जनता को पूरी तरह पता होगा कि अगर वे भाजपा को छोड़कर विपक्ष का विधायक चुनते हैं तो वो उनके किसी काम का नहीं है, यानी भाजपा सरकार में तो उनका कोई काम नहीं करा सकता। बावजूद इसके उन्होंने भाजपा उम्मीदवार की जगह सपा का उम्मीदवार चुना। यानी एक बड़ा रिस्क लिया। यह सवाल इसलिए हैं कि एक फैक्टर जिसके कहीं काम करने का दावा किया जा रहा है वो दूसरी जगह उसी तरह काम नहीं कर रहा। इसलिए किसी की जीत और हार को एक आम या सामान्य फार्मूला लगाकर नहीं समझा जा सकता। इसकी गहराई में जाना होगा। क्योंकि यही कमी चुनाव पूर्व और चुनाव के दौरान के दावों और विश्लेषण में दिखती है और यही चुनाव परिणाम आने के बाद के दावों और तर्कों में दिखती है।

यह सवाल इसलिए भी कि यह सभी फैक्टर दिल्ली में थे, बिहार में भी, हिमाचल में भी। ये सभी उत्तर भारत और हिंदी पट्टी में ही आते हैं। उत्तर पश्चिम के महत्वपूर्ण राज्य पंजाब को भी इसमें जोड़ा जा सकता है। अगर केवल हिंदू-मुस्लिम या सांप्रदायिकता की ही बात है तो दिल्ली में जब शाहीन बाग़ का आंदोलन चल रहा था और देश के गृहमंत्री द्वारा आह्वान किया जा रहा था कि ऐसे ईवीएम का बटन दबाना है कि करंट शाहीन बाग़ तक जाए और दूसरे केंद्रीय मंत्री द्वारा गोली मारो….तक के नारे दिए जा रहे थे। एक अन्य नेता द्वारा बहू-बेटी तक उठा लिए जाने का डर दिखाया जा रहा था तब भी दिल्ली की जनता ने भाजपा या मोदी जी को छोड़कर केजरीवाल को चुना। इसी तरह कर्नाटक में हिजाब से लेकर बजरंगबली तक तमाम सांप्रदायिक और धार्मिक मुद्दों के बावजूद कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीन ली। हालांकि इस संदर्भ में भी बहुत तर्क दिए जा सकते हैं।

लेकिन असल बात यही कि एक देश है लेकिन पूरे देश या सभी राज्यों के चुनाव को किसी एक फार्मूले से नहीं समझा जा सकता और पहले से बने किसी फार्मूले से तो बिल्कुल नहीं। बिल्कुल अगल-बगल की सीटों या राज्यों तक को नहीं। बिहार ने यूपी के पैटर्न पर वोट नहीं किया तो पहाड़ी राज्य हिमाचल ने उत्तराखंड के पैटर्न पर वोट नहीं किया। अंत में एक बात कि वर्ल्ड कप में इंडियन क्रिकेट टीम 10 मैच लगातार जीतकर, सेमीफ़ाइनल में शानदार जीत दर्ज कर भी फ़ाइनल हार जाती है और राजनीति में भाजपा 2018 में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश तक का सेमीफ़ाइनल हारकर 2019 का फ़ाइनल जीत जाती है। इसलिए अभी 2024 के लिए कोई धारणा बना लेना जल्दबाज़ी होगी।

लोकतंत्र का ककहरा सिखाता है चुनाव। लोक पर तंत्र के हावी होने की कहानी बता रहे हैं पांच राज्यों में हुए विधनासभा के चुनाव। इन पांच राज्यों में से तीन हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को मिली अप्रत्याशित छप्पर फाड़ जीत का सीधा-सहज असर पड़ना था इंडिया गठबंधन के भविष्य पर। और, वह पड़ गया। इंडिया गठबंधन पर या कांग्रेस पर हमला भीतर से व बाहर से जितना तेज होगा। भाजपा के लिए यह उतना ही फायदेमंद होगा।

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